September 19, 2011

थोड़ी सी ज़मीं


ये नज़्म मैंने फोकस चैनल के एक कार्यक्रम के लिए लिखी थी, आप में से जो यह चैनल देखते हैं, उन्होंने शायद सुनी हो..



मेरा नाम
सरिता, सरला या सुधा नहीं
शायद, मेरा कोई नाम ही नहीं
कोई कहता है 'ए' कोई कहता है 'अरी को'
कोई 'छुटकी' कह देता है कभी

दुनिया की इस खूबसूरत सी बगिया का
मैं भी एक फूल हूँ
अवांछित ही सही

तो क्यों फेर लेते हो मुंह अक्सर
जब खटखटाती हूँ मैं
तुम्हारी गाडी के शीशे पर
कि दो गुलाब खरीद लो तुम
तो खा सकूँ, मैं भी एक वक्त का खाना

मेरे धुल भरे नंगे पाँव देख कर
जानती हूँ, करते होंगे घृणा मुझसे
तरस भी खाते होंगे, कभी कभी
लेकिन तरस पुलिसवालों को नहीं आता
जब लगाती हूँ मैं अपना बिस्तर फुटपाथ पर
भगा देते हैं हर रोज डरा धमका कर
करनी पड़ती है तलाश
रोज एक नयी जगह की
सोने के लिए

होना पड़ता है
वासना का शिकार
मुंह पे ताला है, कौन सुनेगा मेरी पुकार
सिसकियों को रख के सिरहाने
करना है सुबह का इंतज़ार

जागना भी है पहली किरण के साथ
ताकि तकलीफ न हो
आने जाने वालों को
देखो.. मुझे है तुम्हारा कितना ख्याल
तुम भी तो मुझपे जरा सा रहम करो
जीने दो मुझे सुकून से..

मुझे भीख नहीं बस थोडा सा स्नेह चाहिए
जिसे मैं अपने दिल में रख सकूँ
और अपने चरों और महसूस कर सकूँ नर्माइश
इस ठिठुरते मौसम में
और सो जाऊं
धरती के इस बिछौने पर
आसमान की चादर ओढ़ कर
यही तो है मेरा आशियाँ
मुझे चाहिए बस
थोड़ी सी ज़मीन थोडा सा आसमां !

September 15, 2011

कुछ यूँ ही .. जन्मदिन मुबारक हो मुझे.. :)

अरसे से कोई नज़्म/ कोई गज़ल नहीं हुई, ये नज़्म पिछले साल अपने जन्मदिन पर कही थी॥ इस साल अगर कुछ कह पाई तो ज़रूर आपसे सांझा करुँगी॥ फिलहाल यही । आपकी दुआओं की दरकार है॥

...............
जो
आज है वो कल था, होगा फिर से कभी
गुजर रहा है वक्त इसको थाम लेना क्यों
फिर आज इसने पलट कर बढ़ा दी उम्र मेरी
छुपाऊं कैसे झुर्रियाँ ये सोचती हूँ मैं
पलट पलट के गुज़रे लम्हे झांकती हूँ मैं

बड़ा मासूम सा बचपन कहीं पे बैठा है
उदास चेहरे को ढक कर के अपने हाथों से
पुकारता है, ढूँढता है, अपने साथी को
छुडा के आई थी जोश ए जुनूं में हाथ उस से
वहीँ पे बैठा है अब तक, वो राह तकता है

जो आई थी तो मेरे पाँव लौट ही न सके
दरक्क्षा राहों के रंगीन खाब भाने लगे
मैं खो गई कहीं इस चमचमाती दुनिया में
बिसर गए वो दिन पुराने ज़ेहन से भी मेरे

जो वक्त ने ली करवटें तो हकीकत देखी
उतर गए नकाब चेहरों से धीरे धीरे
ना मिला कोई दोस्त मुझको याँ बचपन जैसा
तो याद आया मुझे फिर वही मासूम सनम
मेरा बचपन, मेरा साथी, वो दर्द का मरहम

बहुत ही चाहा लौटना मगर मैं जा न सकी
ये वक्त डाल गया बेडियाँ पाँव में मेरे
तडपती, चीखती रही मैं मिलने बचपन को
मगर ना लौट के जा पाई उसके पास कभी

उदास आँखें लिए आज सोचती हूँ मैं
भला ही होता अगर मैं न आई होती यहाँ
ये उम्र का पड़ाव आज बहुत खाली है
खुशी का नाम नहीं दर्द बढ़ता जाता है
मुझे ये जन्मदिन क्यूँकर भी नहीं भाता है
आज बचपन के लिए दिल तड़प सा जाता है..
आज बचपन के लिए दिल तड़प सा जाता है..!!

September 7, 2011

jaade ... ek purani nazm


बहुत पुरानी नज़्म हाथ लगी आज.. जून 2009 में कही थी..तब से अब तक कितना कुछ बदल गया.. ये नहीं बदली .. ;)

अल्लसुबह की फीकी पीली किरणों में
बीती रात ने जो छोड़े

चमकने लगे हैं वो आँसू

वही मोती चुन रही हूँ…

अजब हाल है

सियाह रात के आँसू

कितने रंग समेटे हैं..





हाँ, मीठी हो चली है अब

दोपहर की धूप भी

घर में बदन ठिठुरता है

तेरी साँसों का पैरहन भी नहीं



वक़्त है कि सरकता ही नहीं

इंतज़ार का वक़्त है न

चलता भी है तो यूँ के

मोच आई हो पाँव में जैसे

शाम की ठण्ड रास आती नहीं

जमती साँसों की

गर्म सी आहट

बदलते मौसम की खबर देती है…


रात भी कातिलाना है

चांदनी की चादर काम आती नहीं

और कम्बल है एक दुआओं का

उसको बस ओढ़ के लेट जाती हूँ

नींद पर फिर भी पास आती नहीं



सुबह और शाम का मेरी

अब ये आलम है

तेरी आमद के इंतज़ार में

देहलीज हो गईं आँखें



इस बार ख़त में इल्तिजा भेज रही हूँ

जवाब में खुद ही आ जाना

कि जाड़े इस बार के वरना

जानलेवा हैं

जान लेके जायेंगे..!!