August 14, 2008

ek chhoti si kahani..."smriti"


"Thankyou bhaiya", keep the change.. कह के मैंने टैक्सी से अपना छोटा सा suitcase निकला, सामने grey colour से रंगी दीवारें आपस में यूँ जुडी थी जैसे पक्के दोस्त जो एक दुसरे से हमेशा किसी न किसी तरह जुड़े होते हैं, साथ में जुडा था maroon रंग एक छोटा सा दरवाजा.... चार छोटी छोटी सीढियां...मैंने अपनी jeans की pocket से चाबी निकाली, दरवाजा खोला...खट से करके दरवाजा खुला, अपना suitcase अंदर रख मेरे दिल से निकल कर जुबान पे आया, "लो जी मैडम, यह है आपका नया घर".....घर या मकान??? कहते हैं चार दीवारों से जुड़े मकान को उसमे रहने वाला घर बनता है, फिर एक दिन वही घर बनाने वाला उसे छोड़ के चला जाता है, उस मकान की कई यादें ले कर.. और उस घर को फिर से मकान बना कर....Detective होने की सबसे बड़ी सजा यही होती है शायद, खानाबदोश की तरह कभी इस शहर कभी उस शहर...6 साल की नौकरी में 3 घर बदल चुकी हूँ अब तक.. यह तीसरा घर, जाने कितनी यादें बटोर कर लायी हूँ पिछले घर से, जाने कितनी ले जाउंगी यहाँ से... हर बार एक नए मकान को घर बनाओ, सजाओ सवारों, फिर एक दिन अपना सामान समेटो और चलो एक नयी मंजिल की और...ओह..! सामान से याद आया, मेरा सामान अभी तक नहीं आया... फ़ोन मिलकर पूछा तो पता चला की सामान आने में अभी कुछ और वक़्त लगेगा, तब तक क्यूँ न मैं घर की सफाई ही कर लूँ...
चलो यह अच्छा हुआ की घर का मालिक फर्निचर भी छोड़ गया, सफ़ेद कपडा हटाने पर पता चला की कितने प्यार से रखा होगा सब कुछ उसने, एक भी चीज़ पर कोई भी खरोच तक नहीं...सच काफी करीने से रखा था सब कुछ, अलमारी को खोला तो कुछ प्लास्टिक के पेपर बिछे थे मैंने धीरे से उन्हें निकलना शुरू किया, तभी एक पेपर के नीचे से एक कागज़ हाथ में आया...पहले सोचा किसी का ख़त लगता है, पढू या नहीं???...
फिर सोचा पढ़ के तो देखू शायद घर के मालिक के बारे में कुछ पता चले..."नहीं, किसी का ख़त पढना अच्छी बात नहीं..", फिर पता नहीं दिमाग में क्या आया मैंने ख़त को खोला और पढना शुरू किया....
मेरी स्मृति,

स्मृति..
ये नाम मैंने दिया था तुम्हे, कुछ 8 महीने पहले, तुम्हारा नाम नहीं जानता न इसी लिए...शायद यह आखिरी बार होगा जब मैं तुम्हे परेशां कर रहा हूँ... क्या कहूँ... आज तक कई ख़त लिखे, कई बार कोशिश की तुम्हे बता सकू, कि मैं तुम्हे कितना चाहता हूँ, कितनी शिद्दत से महसूस करता हूँ तुम्हे, लेकिन कभी कह नहीं पाया, हसी आती है कभी तो कभी रोना आता है..
पिछले साल जब मैं आया था इस घर में, सुबह- सुबह तुम्हे सामने वाली बालकनी में बाल सुखाते देखा, साक्षात् सुबह जैसे उठ खड़ी हुई हो आखों के सामने..
सूरज सा तेज़ चेहरे पर, चमकती आँखें.. घने काले लम्बे बाल.. भीगे बालों को तुम यूँ सुलझा रही थी जैसे मोती पिरो रही हो उनमें...मुझे तो बस उसी दिन से यह घर प्यारा लगने लगा था, और उसी दिन से मैं शायर हो गया था...आज तक.. कितनी नज्में लिखी, हर बार ख़त में लिख लिख कर संभल के रखता गया, कभी दे नहीं सका, हिम्मत ही नहीं पड़ी, बस.. दूर से देखता रहा तुम्हे, नाम भी पूछा नहीं गया..तुम मेरी याद, मेरी स्मृति बनी रह गयी....
इस बार कोशिश करूँगा कि जाने से पहले तुम्हे यह आखिरी ख़त दे कर जाऊँ, और हाँ..., बाकि सभी ख़त, तुम पर लिखी सारी नज्में, घर के पीछे वाले लॉन में आम के पेड़ के नीचे एक बड़े पत्थर के नीचे दफन हैं, वहां से मिल जायेंगी...
कभी आ पाया तो वापिस जरुर आऊंगा.. हिम्मत हुई तो तुमसे बात भी करूँगा.. मैं यह नहीं कहता की मेरा इंतज़ार करना और वैसे भी मैं हूँ ही कौन.. एक अजनबी से ज्यादा कुछ भी नहीं... कमाल का दीवाना हूँ मैं भी.. आज तक तुम्हारा नाम तक नहीं जानता.. और तुम पर लिखता है गजले और नज्में... तुम भी सोचोगी अजीब पागल है...
पर यह पागल तुमसे बे इन्तिहाँ प्यार करता है.. और हमेशा याद रखेगा तुम्हे... स्मृति ज़िन्दगी में यूँ तो कई लोग मिलते हैं लेकिन कुछ लोग ऐसे भी मिलते हैं जो बिना किसी कारण के जिंदगी का अटूट हिस्सा बन जाते हैं.. यूँ ही तुम हो मेरी ज़िन्दगी का अजीज़ हिस्सा...मेरी स्मृति...जो मेरी स्मृति में ही सिमट के रह जाती है.. लेकिन यादों पे, सोच पे कोई बदिश भी तो नहीं होती न.. न कोई डर, न रोक किसी की...बस यही कह कर इस ख़त को यही ख़त्म करता हूँ.. की तुम हमेशा रहोगी साथ मेरे, हमेशा..
और अगर तुम्हे लगे की यह दीवाना इस लायक है की तुमसे बात कर सके तो मेरा no.. है.....09...मुझे एक फ़ोन कर लेना...
मैं तुम्हारा..दीवाना...
ख़त के ख़त्म होते होते, मेरे रोंगटे खड़े हो गए... कई सवाल दिमाग में एक साथ आ गए, क्या हुआ होगा इस दीवाने का??? क्या वोः अपनी इस स्मृति को दे पाया होगा यह ख़त??? और अगर नहीं, तो क्या बस यहीं ख़त्म हो गयी यह कहानी???? अगर नहीं तो क्या स्मृति ने इंतज़ार किया इस दीवाने का??? क्या वोः वापिस आया??? कई सालों से घर तो खली पड़ा है, क्या स्मृति ने फ़ोन किया होगा उसे??? क्या हुआ होगा???
और हाँ वोः नज्म क्या अभी भी वही हैं या, स्मृति ने निकाल लिया उन्हें वहां से???यह सोच मैं बाहर गयी, आम के पेड़ के नीचे, एक बड़ा सा पत्थर था, मैंने पत्थर को हटाया, तो उस के नीचे जमीन में एक छोटा सा metal box दबा था..
शायद वोह दीवाना नहीं दे पाया होगा यह ख़त स्मृति को क्यूंकि जब मैंने वोह छोटा सा डिब्बा खोला तो उसमे कई ख़त थे, और एक गुलाब जो एक ख़त में से झाँक रहा था, ऐसा लगा जैसे मुस्कुरा रहा था.. शायद यह वही ख़त होगा जिसमे उस दीवाने ने अपना हाल ऐ दिल बयां किया होगा स्मृति से ..
बेचारा...मैंने ख़त को निकला, लगभग 100 ख़त थे उस छोटे से डिब्बे में, ख़त में लिखा था "स्मृति",
आज कई महीने गुज़र गए, तुम्हे रोज़ इसी बालकनी में सुबह बाल बनाते देखता हूँ, फिर तुम आती हो, और पौधों में पानी डाल के जाती हो , फिर अक्सर शाम को तुम यूँ ही सड़क को निहारती हुई , कुछ वक़्त इसी बालकनी में मुझे नज़र आती हो...स्मृति, तुम्हारा नाम भी नहीं जानता, तुम सोचोगी की अजीब पागल है, एक अजनबी को ख़त लिखता है, लेकिन यह पागल अजनबी, तुमसे बहुत प्यार करता है.. पता नहीं कैसे पता नहीं कब से.. शायद तब से जब से पहली बार देखा था तुम्हे यहाँ, जब मैं पहली बार आया था...
मैंने नज़र उठा के देखा सामने वाली बालकनी खली पड़ी थी.. और जब नज़र दरवाज़े पर गयी तो घर पे ताला था... शायद अब स्मृति भी वहां नहीं रहती...
ख़त को आगे पढना चाहा पर आँखों से छोटी छोटी बूंदे निकल आई, कितना दीवाना होगा न यह दीवाना, जो एक अजनबी लड़की को बिना जाने, कितना प्यार करता था, और कभी कह नहीं पाया...
यह सोच मैंने उस गुलाब पर एक नज़र डाली तो वोह अभी भी मुस्कुरा रहा था, सूख जरुर गया था, पर आज भी जैसे वोह यह कहना चाहता था की यह दीवाना सौ फीसदी सच कह रहा है, जैसे देखा हो उस फूल ने उस दीवाने को तड़पते हुए... कैसी होगी यह स्मृति? कौन होगा वोह दीवाना? चाहू तो मैं फ़ोन कर एक पता भी कर सकती हूँ, पर क्या फायदा अब तो स्मृति भी यहाँ नहीं रहती... "बेचारा".. किसी ने सच ही कहा है
मोहब्बत भी अजीब शेय है, हर किसी को नहीं मिलतीखैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती...
काश..! स्मृति यहाँ होती, तो शायद मैं उसे बता पाती और जब वोह यह सारे ख़त पढ़ती तो शायद उसे यह एहसास होता की कोई अजनबी उसे कितना चाहता था...
काश..!
यही सोच रही थी.. की अचानक door bell बजी, लगता है मेरा सामान आ गया, मैंने आँखों की भीगी कोरो को पोछा और बढ़ गयी दरवाज़े की और....!!

June 24, 2008



शायद तुम आओ तो जान पाओगे


मेरे क़दमों के कई निशान पाओगे


मैं आज भी रोज़ वहां जाती हूँ


जहाँ तुम छोड़ के गए थे आखिरी बार


मेरी आंखों की नमी वहीँ पे पाओगे


शायद तुम आओ तो जान पाओगे.....




तुमको राह दिखने आज भी मेरे ख्वाब मिलेंगे


अपने रिश्ते के सफ्हे आज भी वहीँ मिलेंगे


मिलेगी मेरी मुन्तजिर आँखें भी वहीँ


जहाँ तुम छोड़ के गए थे आखिरी बार


सिसकती हुई उम्मीद को घायल पड़ा वहीँ पे पाओगे


शायद तुम आओ तो जान पाओगे....




मेरी चाहत का अंजाम क्या हुआ


जो मिला दुनिया से वोह इल्जाम क्या हुआ


सारे टूटे वादे बिखरे होगे वहां


जहाँ तुम छोड़ के गए थे आखिरी बार


गिले सारे, सभी शिकवे दफन वहीँ पे पाओगे


शायद तुम आओ तो जान पाओगे...!!





shayad tum aao to jaan paaoge


mere kadmon ke kai nisha'n paaoge


main aaj bhi roz wahan jaati hu'n


jahan tum chod ke gaye the aakhiri baar


meri aankhon ki nami wahan pe paaoge


shayad tum aao to jaan paaoge....




tumko raah dikhane aaj bhi mere khwaab milenge


apne rishtey ke safhe aaj bhi wahin milenge


milengi meri muntazir aankhein bhi wahan


jahan tum chod ke gaye the aakhiri baar


sisakti hui ummeed ko ghayal pada wahin pe paaoge


shayad tum aao to jaan paaoge...




meri chahat ka anjaam kya hua


jo mila duniya se woh ilzaam kya hua


saare tootey waade bikhre honge wahan


jahan tum chod ke gaye the aakhiri baar


gile saare, sabhi shikwe dafn wahin pe paaoge


shayad tum aao to jaan paaoge....!!!