ये नज़्म मैंने फोकस चैनल के एक कार्यक्रम के लिए लिखी थी, आप में से जो यह चैनल देखते हैं, उन्होंने शायद सुनी हो..
मेरा नाम
सरिता, सरला या सुधा नहीं
शायद, मेरा कोई नाम ही नहीं
कोई कहता है 'ए' कोई कहता है 'अरी को'
कोई 'छुटकी' कह देता है कभी
दुनिया की इस खूबसूरत सी बगिया का
मैं भी एक फूल हूँ
अवांछित ही सही
तो क्यों फेर लेते हो मुंह अक्सर
जब खटखटाती हूँ मैं
तुम्हारी गाडी के शीशे पर
कि दो गुलाब खरीद लो तुम
तो खा सकूँ, मैं भी एक वक्त का खाना
मेरे धुल भरे नंगे पाँव देख कर
जानती हूँ, करते होंगे घृणा मुझसे
तरस भी खाते होंगे, कभी कभी
लेकिन तरस पुलिसवालों को नहीं आता
जब लगाती हूँ मैं अपना बिस्तर फुटपाथ पर
भगा देते हैं हर रोज डरा धमका कर
करनी पड़ती है तलाश
रोज एक नयी जगह की
सोने के लिए
होना पड़ता है
वासना का शिकार
मुंह पे ताला है, कौन सुनेगा मेरी पुकार
सिसकियों को रख के सिरहाने
करना है सुबह का इंतज़ार
जागना भी है पहली किरण के साथ
ताकि तकलीफ न हो
आने जाने वालों को
देखो.. मुझे है तुम्हारा कितना ख्याल
तुम भी तो मुझपे जरा सा रहम करो
जीने दो मुझे सुकून से..
मुझे भीख नहीं बस थोडा सा स्नेह चाहिए
जिसे मैं अपने दिल में रख सकूँ
और अपने चरों और महसूस कर सकूँ नर्माइश
इस ठिठुरते मौसम में
और सो जाऊं
धरती के इस बिछौने पर
आसमान की चादर ओढ़ कर
यही तो है मेरा आशियाँ
मुझे चाहिए बस
थोड़ी सी ज़मीन थोडा सा आसमां !