September 15, 2012

मिला हर बार तू होकर किसी का

नहीं सुनता है वो आहो बुका क्या?
कहो बहरा हुआ अपना खुदा क्या?

है फैला ज़हर ये वादी में कैसा?
कहीं से आई नफरत की हवा क्या?

गिला, शिकवा, शिकायत कर भी लेता
मगर तुझसे मैं कहता भी, तो क्या क्या?

मैं सदियों से तेरे दर पर खड़ा हूँ
यहाँ से बंद है हर रास्ता क्या?

वो फिर से रूठ कर जाने लगा है
नहीं होगा कोई अब मोजिज़ा क्या?

तेरे अल्फाज़ सीले सीले क्यूँ हैं?
कहीं कोई अब्र है तुझमें दबा क्या?

बदन की सारी गिरहें खुल रही हैं
मुझे फिर तेरी आँखों ने छुआ क्या?

मिला हर बार तू होकर किसी का
मैं तुझसे आखिरश फिर मांगता क्या?

तुझे पाया तो खुद को खो दिया, सच!
वगरना तुझमें खुद को ढूँढता क्या?

बडी शिद्दत से देखे हो लकीरें
मिरा भी नाम है इनमें लिखा क्या?

उदासी है, उदासी थी, रहेगी
तुम्हारे बाद अब दिल में रहा क्या?

मेरे चेहरे को यूँ तकते हो कैसे?
तुम्हे खोया हुआ कुछ मिल गया क्या?

तुम्हे हर पल शिकायत ही है मुझसे
कभी जो मैं कहूँ, तुमने सुना क्या?

कोई आता नहीं कितना पुकारो
गया मतलब तो फिर अब राबता क्या?

खुदा के नूर से है 'आब' रौशन
वगरना नाम है और नाम का क्या?

11 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

हर शेर उम्दा .... बहुत खूबसूरत गज़ल ...

जन्मदिन की अग्रिम बधाई और शुभकामनायें

Smart Indian said...

@उदासी है, उदासी थी, रहेगी
तुम्हारे बाद अब दिल में रहा क्या?
- वाह!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 27-09 -2012 को यहाँ भी है

.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....मिला हर बार तू हो कर किसी का .

Anupama Tripathi said...

दीपाली जी बहुत सुंदर ब्लॉग है आपका ....!!ये जीवन की धूप छाँव बहुत पसंद आई ...
आपकी लेखनी तो उससे भी कमाल की है ॥
मेरे चेहरे को यूँ तकते हो कैसे?
तुम्हे खोया हुआ कुछ मिल गया क्या?

बहुत देर तक ...बड़ी सुकून से ठहरी थी यहाँ ..

बहुत बधाई एवं शुभकामनायें ...

Vandana Ramasingh said...

बहुत बढ़िया ....

Saras said...

है फैला ज़हर ये वादी में कैसा?
कहीं से आई नफरत की हवा क्या?
......बेहतरीन ...

Unknown said...

bahut badhiya shodon ka samagam...dhnywad kabhi samay mile to mere blog http://pankajkrsah.blogspot.com pe padharen swagat hai

नादिर खान said...

उदासी है, उदासी थी, रहेगी
तुम्हारे बाद अब दिल में रहा क्या?

मेरे चेहरे को यूँ तकते हो कैसे?
तुम्हे खोया हुआ कुछ मिल गया क्या?

तुम्हे हर पल शिकायत ही है मुझसे
कभी जो मैं कहूँ, तुमने सुना क्या?

क्या कहने, उम्दा गज़ल

पूरी गज़ल लाजवाब है ।

Kailash Sharma said...

मैं सदियों से तेरे दर पर खड़ा हूँ
यहाँ से बंद है हर रास्ता क्या?

...बहुत खूब! बेहतरीन गज़ल...

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

.

बदन की सारी गिरहें खुल रही हैं
मुझे फिर तेरी आँखों ने छुआ क्या?

आहाऽऽहाऽ…! क्या शे'र लिखा है आपने …
निग़ाह हटना ही नहीं चाहती इस शे'र से…

वैसे पूरी ग़ज़ल कमाल की लिखी है आपने दिपाली जी

शानदार मतला और हर शे'र सवा शे'र
:)
नहीं सुनता है वो आहो बुका क्या?
कहो बहरा हुआ अपना खुदा क्या?

गिला, शिकवा, शिकायत कर भी लेता
मगर तुझसे मैं कहता भी, तो क्या क्या?

मैं सदियों से तेरे दर पर खड़ा हूँ
यहाँ से बंद है हर रास्ता क्या?


गिरह भी बहुत ख़ूबसूरती से लगाई है …

हां , इस शे'र में कुछ वज़्न की गड़बड़ी है…
तेरे अल्फाज़ सीले सीले क्यूँ हैं?
कहीं
'कोई' अब्र है तुझमें दबा क्या?
को और ई दोनों का वज़्न गिराना शायद जायज नहीं…

शुभकामनाओं सहित…
राजेन्द्र स्वर्णकार

ANULATA RAJ NAIR said...

वाह...
बेहद खूबसूरत......
और क्या कहूँ...

अनु