September 15, 2012

मिला हर बार तू होकर किसी का

नहीं सुनता है वो आहो बुका क्या?
कहो बहरा हुआ अपना खुदा क्या?

है फैला ज़हर ये वादी में कैसा?
कहीं से आई नफरत की हवा क्या?

गिला, शिकवा, शिकायत कर भी लेता
मगर तुझसे मैं कहता भी, तो क्या क्या?

मैं सदियों से तेरे दर पर खड़ा हूँ
यहाँ से बंद है हर रास्ता क्या?

वो फिर से रूठ कर जाने लगा है
नहीं होगा कोई अब मोजिज़ा क्या?

तेरे अल्फाज़ सीले सीले क्यूँ हैं?
कहीं कोई अब्र है तुझमें दबा क्या?

बदन की सारी गिरहें खुल रही हैं
मुझे फिर तेरी आँखों ने छुआ क्या?

मिला हर बार तू होकर किसी का
मैं तुझसे आखिरश फिर मांगता क्या?

तुझे पाया तो खुद को खो दिया, सच!
वगरना तुझमें खुद को ढूँढता क्या?

बडी शिद्दत से देखे हो लकीरें
मिरा भी नाम है इनमें लिखा क्या?

उदासी है, उदासी थी, रहेगी
तुम्हारे बाद अब दिल में रहा क्या?

मेरे चेहरे को यूँ तकते हो कैसे?
तुम्हे खोया हुआ कुछ मिल गया क्या?

तुम्हे हर पल शिकायत ही है मुझसे
कभी जो मैं कहूँ, तुमने सुना क्या?

कोई आता नहीं कितना पुकारो
गया मतलब तो फिर अब राबता क्या?

खुदा के नूर से है 'आब' रौशन
वगरना नाम है और नाम का क्या?

March 29, 2012

उदासियों के मौसम में

अंधेरों में अतीत तलाशते हुए
हाथ लगता है खालीपन
भूली बिसरी याद कभी भटकते हुए
टकरा जाये तो गिर पड़ती हूँ
कभी कोई खाब छूट कर हाथ से
गिर जाए तो चुभ जाते हैं निहित रिश्ते पाँव में
रिसता रहता है दर्द
बूँद बूँद टूट कर पलकों से
उदासियों के मौसम में !!

September 19, 2011

थोड़ी सी ज़मीं


ये नज़्म मैंने फोकस चैनल के एक कार्यक्रम के लिए लिखी थी, आप में से जो यह चैनल देखते हैं, उन्होंने शायद सुनी हो..



मेरा नाम
सरिता, सरला या सुधा नहीं
शायद, मेरा कोई नाम ही नहीं
कोई कहता है 'ए' कोई कहता है 'अरी को'
कोई 'छुटकी' कह देता है कभी

दुनिया की इस खूबसूरत सी बगिया का
मैं भी एक फूल हूँ
अवांछित ही सही

तो क्यों फेर लेते हो मुंह अक्सर
जब खटखटाती हूँ मैं
तुम्हारी गाडी के शीशे पर
कि दो गुलाब खरीद लो तुम
तो खा सकूँ, मैं भी एक वक्त का खाना

मेरे धुल भरे नंगे पाँव देख कर
जानती हूँ, करते होंगे घृणा मुझसे
तरस भी खाते होंगे, कभी कभी
लेकिन तरस पुलिसवालों को नहीं आता
जब लगाती हूँ मैं अपना बिस्तर फुटपाथ पर
भगा देते हैं हर रोज डरा धमका कर
करनी पड़ती है तलाश
रोज एक नयी जगह की
सोने के लिए

होना पड़ता है
वासना का शिकार
मुंह पे ताला है, कौन सुनेगा मेरी पुकार
सिसकियों को रख के सिरहाने
करना है सुबह का इंतज़ार

जागना भी है पहली किरण के साथ
ताकि तकलीफ न हो
आने जाने वालों को
देखो.. मुझे है तुम्हारा कितना ख्याल
तुम भी तो मुझपे जरा सा रहम करो
जीने दो मुझे सुकून से..

मुझे भीख नहीं बस थोडा सा स्नेह चाहिए
जिसे मैं अपने दिल में रख सकूँ
और अपने चरों और महसूस कर सकूँ नर्माइश
इस ठिठुरते मौसम में
और सो जाऊं
धरती के इस बिछौने पर
आसमान की चादर ओढ़ कर
यही तो है मेरा आशियाँ
मुझे चाहिए बस
थोड़ी सी ज़मीन थोडा सा आसमां !

September 15, 2011

कुछ यूँ ही .. जन्मदिन मुबारक हो मुझे.. :)

अरसे से कोई नज़्म/ कोई गज़ल नहीं हुई, ये नज़्म पिछले साल अपने जन्मदिन पर कही थी॥ इस साल अगर कुछ कह पाई तो ज़रूर आपसे सांझा करुँगी॥ फिलहाल यही । आपकी दुआओं की दरकार है॥

...............
जो
आज है वो कल था, होगा फिर से कभी
गुजर रहा है वक्त इसको थाम लेना क्यों
फिर आज इसने पलट कर बढ़ा दी उम्र मेरी
छुपाऊं कैसे झुर्रियाँ ये सोचती हूँ मैं
पलट पलट के गुज़रे लम्हे झांकती हूँ मैं

बड़ा मासूम सा बचपन कहीं पे बैठा है
उदास चेहरे को ढक कर के अपने हाथों से
पुकारता है, ढूँढता है, अपने साथी को
छुडा के आई थी जोश ए जुनूं में हाथ उस से
वहीँ पे बैठा है अब तक, वो राह तकता है

जो आई थी तो मेरे पाँव लौट ही न सके
दरक्क्षा राहों के रंगीन खाब भाने लगे
मैं खो गई कहीं इस चमचमाती दुनिया में
बिसर गए वो दिन पुराने ज़ेहन से भी मेरे

जो वक्त ने ली करवटें तो हकीकत देखी
उतर गए नकाब चेहरों से धीरे धीरे
ना मिला कोई दोस्त मुझको याँ बचपन जैसा
तो याद आया मुझे फिर वही मासूम सनम
मेरा बचपन, मेरा साथी, वो दर्द का मरहम

बहुत ही चाहा लौटना मगर मैं जा न सकी
ये वक्त डाल गया बेडियाँ पाँव में मेरे
तडपती, चीखती रही मैं मिलने बचपन को
मगर ना लौट के जा पाई उसके पास कभी

उदास आँखें लिए आज सोचती हूँ मैं
भला ही होता अगर मैं न आई होती यहाँ
ये उम्र का पड़ाव आज बहुत खाली है
खुशी का नाम नहीं दर्द बढ़ता जाता है
मुझे ये जन्मदिन क्यूँकर भी नहीं भाता है
आज बचपन के लिए दिल तड़प सा जाता है..
आज बचपन के लिए दिल तड़प सा जाता है..!!

September 7, 2011

jaade ... ek purani nazm


बहुत पुरानी नज़्म हाथ लगी आज.. जून 2009 में कही थी..तब से अब तक कितना कुछ बदल गया.. ये नहीं बदली .. ;)

अल्लसुबह की फीकी पीली किरणों में
बीती रात ने जो छोड़े

चमकने लगे हैं वो आँसू

वही मोती चुन रही हूँ…

अजब हाल है

सियाह रात के आँसू

कितने रंग समेटे हैं..





हाँ, मीठी हो चली है अब

दोपहर की धूप भी

घर में बदन ठिठुरता है

तेरी साँसों का पैरहन भी नहीं



वक़्त है कि सरकता ही नहीं

इंतज़ार का वक़्त है न

चलता भी है तो यूँ के

मोच आई हो पाँव में जैसे

शाम की ठण्ड रास आती नहीं

जमती साँसों की

गर्म सी आहट

बदलते मौसम की खबर देती है…


रात भी कातिलाना है

चांदनी की चादर काम आती नहीं

और कम्बल है एक दुआओं का

उसको बस ओढ़ के लेट जाती हूँ

नींद पर फिर भी पास आती नहीं



सुबह और शाम का मेरी

अब ये आलम है

तेरी आमद के इंतज़ार में

देहलीज हो गईं आँखें



इस बार ख़त में इल्तिजा भेज रही हूँ

जवाब में खुद ही आ जाना

कि जाड़े इस बार के वरना

जानलेवा हैं

जान लेके जायेंगे..!!

August 26, 2011

strawberry flavour


उसने मेरे हाथ को छुआ, मैं आँखें खोलती हूँ, वो मुस्कुराती है। उसकी क्रूर रहस्यमयी मुस्कराहट मुझे भीतर तक छील देती है! मैं जल्दी से एक नकली मुस्कान उठा कर पहन लेती हूँ। मैं मुस्कुराती हूँ, नहीं.. मैं कुछ ज्यादा, शिद्दत से मुस्कुराती हूँ। उस से भी ज्यादा खुश दिखने की कोशिश करती हूँ, लेकिन उसके सामने खुश होकर भी अपने को भीतर से बहुत छोटा महसूस करती हूँ। खुद से एक बार फिर और कमज़ोर हो जाती हूँ। लेकिन अपनी इस कमजोरी को छुपाने के लिए मैं उठ कर उसे गले लगाती हूँ, इस औचक मुलाक़ात से मैं विस्मित हूँ ऐसा अभिनय करती हूँ। पर इस खुशी की आड में उसे बस एक बार देख कर ही मैं अपने भीतर किसी कोने में, कहीं छुप कर बहुत जोर से चिल्लाकर, टूट कर, बिखर कर, बिलख कर रोती हूँ, क्यूंकि एक रोज मैंने उसे बहुत अपना पाया था, बहुत मान दिया था, बहुत प्रेम किया था, एक रोज वो मेरी सबसे अच्छी दोस्त थी..दोस्त..।
आगे पढ़ें .

http://kuchkahaniyaanzindagise.blogspot.com/2011/07/blog-post.html

August 18, 2011

एक चुटकी अपनापन


उदासी के क्षणों में
अक्सर आ ही जाती है
पाँव तले परछाई
और चिल्ला पड़ता है मौन
ताकि आत्मा तक
पहुँच सके उसकी पुकार

मैं जो कुछ पल यूँ ही
चलता रहता हूँ
तुम्हारे साथ
सोचता हूँ
तुम अगर मेरे ज़ख्मों पर
अपने अल्फाज़ रख दो
तो गीत गाने लगेगी
मुस्कुराहटें


प्रेम धूप सा
निश्चल है
इच्छाओं की ऊँगली रख कर
इसे मैला ना करो


बोलती आँखों और खामोश होठों की
चलते फिरते पाँव, बंधे हाथ और उदास सायों की
इस वीरान दुनिया में
मैं तुमसे आखिर
और मांग भी क्या सकता हूँ
बस एक चुटकी अपनापन !!



Deep


चित्र साभार : सौमित्र आनंद

July 12, 2011

ऐसी आहट है उसके जाने की

चाहतें थीं करीब आने की,

शर्त लेकिन थी भूल जाने की..


मिन्नतें, मिन्नतें रहीं लेकिन,

हसरतें खो गईं सुनाने की..


आप भी आप ही रहे लेकिन,

बात कोई तो हो पुराने की..


वक्त ज़ाया किया क्यों आने में,

इतनी जल्दी थी अगर जाने की..


अपनी आदत से बाज़ आ ही गए,

बड़ी आदत थी मुस्कुराने की..


टूट कर जैसे दिल बिखर जाये,

ऐसी आहट है उसके जाने की..


ना यकीं उसपे करना 'आब' उसे,

लग गई है हवा ज़माने की..!!

June 25, 2011

वो न आयें, प्' उनकी याद आए...!

वो न आये तो उनकी याद आए
जी न जाए, तो क्या जिया जाए..

हसरतें आँसुओं में घुलने लगीं,
ख्वाब मेरे सभी जो मुरझाए..

नींद में कितने खौफ शामिल हैं,
हम भी देखेंगे, नींद आ जाए..

हमने चाहा नहीं गम ए फुर्कत,
आ गया है, तो भले रह जाए..

तुम न आये मगर न जाने क्यूँ,
दिल ये कहता है देखो वो आए..

वस्ल में रूह घुल गई लेकिन,
जिस्म गलता नहीं है क्यूँ हाए..

रास्ता तक रही हूँ मैं कब से,
गो न आयें, प्' उनकी याद आए...!

June 6, 2011

ये शीशा ए दिल भी चटक कर गिरा है ..

अभी आँख के लाल डोरे भले ही
शिकायात सी करते है मेरी नज़र से
मुझे इल्म है तुम भी जान-ए-तमन्ना
यही सोचते हो येः मेरी खता है ।

जो मैंने येः गिरहें मोहब्बत है खोली
तो साया मेरे भी तो सर से उठा है
फ़क़त तुम ही तन्हा नहीं हो मेरी जाँ
येः शीशा -ए-दिल भी चटक कर गिरा है ।

मुझे बेवफा कहना चाहे तो कह ले
मैं तेरी सज़ा के भी काबिल नहीं हूँ
मोहब्बत है मुझको भी तुझ से बहुत पर
येः किस्सा अलग है मैं कहता नहीं हूँ ।

मैं दामन बचा कर के जा तो रहा हूँ
मगर मेरी आँखों में तुम ही रहोगे
है जब तक ज़मीं औ फलक येः सलामत
तुम एक याद बन कर के दिल में रहोगे ।

तुम्ही देखना वक़्त करवट जो लेगा
तो खुशियों से भर जायेगा तेरा दामन
तुम उस रोज़ मुझ पर यकीन कर सकोगे
मेरे फैसले को सही भी कहोगे ।

जो थामोगे तुम ज़िन्दगी की कलाई
तो हो जाएगी जीस्त रोशन तुम्हारी
तुम उस रोज़ मुझ पर हँसा भी करोगे
दीवाना था कह कर मेरा नाम लोगे ।

जो देखूंगा तुम को ख़ुशी से सजा मैं
तो दिल को मेरे भी सुकूं सा मिलेगा
नज़र न लगे तेरी खुशियों को जानाँ
मैं हर पल दुआ में खुदा से कहूँगा ।

येः होगा मेरी जाँ यकीं तो करो तुम
ये कुछ पल की तडपन गुजर जाने दो फिर
नया एक सवेरा उगेगा यकीनन
येः गम का अँधेरा छटेगा यकीनन ।

यकीनन तुम उस पल मेरा नाम लेके
ख़ुशी को सजा लोगे लब पे मेरी जाँ

मेरा क्या है मैं खाक का एक टुकड़ा
यूँही खाक में मिल भी जाऊं तो क्या है
तुम्हारी ख़ुशी के लिए आज इस पल
तुम्हारी नज़र से गिरुं भी तो क्या है ॥

'दीपाली'

August 14, 2008

ek chhoti si kahani..."smriti"


"Thankyou bhaiya", keep the change.. कह के मैंने टैक्सी से अपना छोटा सा suitcase निकला, सामने grey colour से रंगी दीवारें आपस में यूँ जुडी थी जैसे पक्के दोस्त जो एक दुसरे से हमेशा किसी न किसी तरह जुड़े होते हैं, साथ में जुडा था maroon रंग एक छोटा सा दरवाजा.... चार छोटी छोटी सीढियां...मैंने अपनी jeans की pocket से चाबी निकाली, दरवाजा खोला...खट से करके दरवाजा खुला, अपना suitcase अंदर रख मेरे दिल से निकल कर जुबान पे आया, "लो जी मैडम, यह है आपका नया घर".....घर या मकान??? कहते हैं चार दीवारों से जुड़े मकान को उसमे रहने वाला घर बनता है, फिर एक दिन वही घर बनाने वाला उसे छोड़ के चला जाता है, उस मकान की कई यादें ले कर.. और उस घर को फिर से मकान बना कर....Detective होने की सबसे बड़ी सजा यही होती है शायद, खानाबदोश की तरह कभी इस शहर कभी उस शहर...6 साल की नौकरी में 3 घर बदल चुकी हूँ अब तक.. यह तीसरा घर, जाने कितनी यादें बटोर कर लायी हूँ पिछले घर से, जाने कितनी ले जाउंगी यहाँ से... हर बार एक नए मकान को घर बनाओ, सजाओ सवारों, फिर एक दिन अपना सामान समेटो और चलो एक नयी मंजिल की और...ओह..! सामान से याद आया, मेरा सामान अभी तक नहीं आया... फ़ोन मिलकर पूछा तो पता चला की सामान आने में अभी कुछ और वक़्त लगेगा, तब तक क्यूँ न मैं घर की सफाई ही कर लूँ...
चलो यह अच्छा हुआ की घर का मालिक फर्निचर भी छोड़ गया, सफ़ेद कपडा हटाने पर पता चला की कितने प्यार से रखा होगा सब कुछ उसने, एक भी चीज़ पर कोई भी खरोच तक नहीं...सच काफी करीने से रखा था सब कुछ, अलमारी को खोला तो कुछ प्लास्टिक के पेपर बिछे थे मैंने धीरे से उन्हें निकलना शुरू किया, तभी एक पेपर के नीचे से एक कागज़ हाथ में आया...पहले सोचा किसी का ख़त लगता है, पढू या नहीं???...
फिर सोचा पढ़ के तो देखू शायद घर के मालिक के बारे में कुछ पता चले..."नहीं, किसी का ख़त पढना अच्छी बात नहीं..", फिर पता नहीं दिमाग में क्या आया मैंने ख़त को खोला और पढना शुरू किया....
मेरी स्मृति,

स्मृति..
ये नाम मैंने दिया था तुम्हे, कुछ 8 महीने पहले, तुम्हारा नाम नहीं जानता न इसी लिए...शायद यह आखिरी बार होगा जब मैं तुम्हे परेशां कर रहा हूँ... क्या कहूँ... आज तक कई ख़त लिखे, कई बार कोशिश की तुम्हे बता सकू, कि मैं तुम्हे कितना चाहता हूँ, कितनी शिद्दत से महसूस करता हूँ तुम्हे, लेकिन कभी कह नहीं पाया, हसी आती है कभी तो कभी रोना आता है..
पिछले साल जब मैं आया था इस घर में, सुबह- सुबह तुम्हे सामने वाली बालकनी में बाल सुखाते देखा, साक्षात् सुबह जैसे उठ खड़ी हुई हो आखों के सामने..
सूरज सा तेज़ चेहरे पर, चमकती आँखें.. घने काले लम्बे बाल.. भीगे बालों को तुम यूँ सुलझा रही थी जैसे मोती पिरो रही हो उनमें...मुझे तो बस उसी दिन से यह घर प्यारा लगने लगा था, और उसी दिन से मैं शायर हो गया था...आज तक.. कितनी नज्में लिखी, हर बार ख़त में लिख लिख कर संभल के रखता गया, कभी दे नहीं सका, हिम्मत ही नहीं पड़ी, बस.. दूर से देखता रहा तुम्हे, नाम भी पूछा नहीं गया..तुम मेरी याद, मेरी स्मृति बनी रह गयी....
इस बार कोशिश करूँगा कि जाने से पहले तुम्हे यह आखिरी ख़त दे कर जाऊँ, और हाँ..., बाकि सभी ख़त, तुम पर लिखी सारी नज्में, घर के पीछे वाले लॉन में आम के पेड़ के नीचे एक बड़े पत्थर के नीचे दफन हैं, वहां से मिल जायेंगी...
कभी आ पाया तो वापिस जरुर आऊंगा.. हिम्मत हुई तो तुमसे बात भी करूँगा.. मैं यह नहीं कहता की मेरा इंतज़ार करना और वैसे भी मैं हूँ ही कौन.. एक अजनबी से ज्यादा कुछ भी नहीं... कमाल का दीवाना हूँ मैं भी.. आज तक तुम्हारा नाम तक नहीं जानता.. और तुम पर लिखता है गजले और नज्में... तुम भी सोचोगी अजीब पागल है...
पर यह पागल तुमसे बे इन्तिहाँ प्यार करता है.. और हमेशा याद रखेगा तुम्हे... स्मृति ज़िन्दगी में यूँ तो कई लोग मिलते हैं लेकिन कुछ लोग ऐसे भी मिलते हैं जो बिना किसी कारण के जिंदगी का अटूट हिस्सा बन जाते हैं.. यूँ ही तुम हो मेरी ज़िन्दगी का अजीज़ हिस्सा...मेरी स्मृति...जो मेरी स्मृति में ही सिमट के रह जाती है.. लेकिन यादों पे, सोच पे कोई बदिश भी तो नहीं होती न.. न कोई डर, न रोक किसी की...बस यही कह कर इस ख़त को यही ख़त्म करता हूँ.. की तुम हमेशा रहोगी साथ मेरे, हमेशा..
और अगर तुम्हे लगे की यह दीवाना इस लायक है की तुमसे बात कर सके तो मेरा no.. है.....09...मुझे एक फ़ोन कर लेना...
मैं तुम्हारा..दीवाना...
ख़त के ख़त्म होते होते, मेरे रोंगटे खड़े हो गए... कई सवाल दिमाग में एक साथ आ गए, क्या हुआ होगा इस दीवाने का??? क्या वोः अपनी इस स्मृति को दे पाया होगा यह ख़त??? और अगर नहीं, तो क्या बस यहीं ख़त्म हो गयी यह कहानी???? अगर नहीं तो क्या स्मृति ने इंतज़ार किया इस दीवाने का??? क्या वोः वापिस आया??? कई सालों से घर तो खली पड़ा है, क्या स्मृति ने फ़ोन किया होगा उसे??? क्या हुआ होगा???
और हाँ वोः नज्म क्या अभी भी वही हैं या, स्मृति ने निकाल लिया उन्हें वहां से???यह सोच मैं बाहर गयी, आम के पेड़ के नीचे, एक बड़ा सा पत्थर था, मैंने पत्थर को हटाया, तो उस के नीचे जमीन में एक छोटा सा metal box दबा था..
शायद वोह दीवाना नहीं दे पाया होगा यह ख़त स्मृति को क्यूंकि जब मैंने वोह छोटा सा डिब्बा खोला तो उसमे कई ख़त थे, और एक गुलाब जो एक ख़त में से झाँक रहा था, ऐसा लगा जैसे मुस्कुरा रहा था.. शायद यह वही ख़त होगा जिसमे उस दीवाने ने अपना हाल ऐ दिल बयां किया होगा स्मृति से ..
बेचारा...मैंने ख़त को निकला, लगभग 100 ख़त थे उस छोटे से डिब्बे में, ख़त में लिखा था "स्मृति",
आज कई महीने गुज़र गए, तुम्हे रोज़ इसी बालकनी में सुबह बाल बनाते देखता हूँ, फिर तुम आती हो, और पौधों में पानी डाल के जाती हो , फिर अक्सर शाम को तुम यूँ ही सड़क को निहारती हुई , कुछ वक़्त इसी बालकनी में मुझे नज़र आती हो...स्मृति, तुम्हारा नाम भी नहीं जानता, तुम सोचोगी की अजीब पागल है, एक अजनबी को ख़त लिखता है, लेकिन यह पागल अजनबी, तुमसे बहुत प्यार करता है.. पता नहीं कैसे पता नहीं कब से.. शायद तब से जब से पहली बार देखा था तुम्हे यहाँ, जब मैं पहली बार आया था...
मैंने नज़र उठा के देखा सामने वाली बालकनी खली पड़ी थी.. और जब नज़र दरवाज़े पर गयी तो घर पे ताला था... शायद अब स्मृति भी वहां नहीं रहती...
ख़त को आगे पढना चाहा पर आँखों से छोटी छोटी बूंदे निकल आई, कितना दीवाना होगा न यह दीवाना, जो एक अजनबी लड़की को बिना जाने, कितना प्यार करता था, और कभी कह नहीं पाया...
यह सोच मैंने उस गुलाब पर एक नज़र डाली तो वोह अभी भी मुस्कुरा रहा था, सूख जरुर गया था, पर आज भी जैसे वोह यह कहना चाहता था की यह दीवाना सौ फीसदी सच कह रहा है, जैसे देखा हो उस फूल ने उस दीवाने को तड़पते हुए... कैसी होगी यह स्मृति? कौन होगा वोह दीवाना? चाहू तो मैं फ़ोन कर एक पता भी कर सकती हूँ, पर क्या फायदा अब तो स्मृति भी यहाँ नहीं रहती... "बेचारा".. किसी ने सच ही कहा है
मोहब्बत भी अजीब शेय है, हर किसी को नहीं मिलतीखैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती...
काश..! स्मृति यहाँ होती, तो शायद मैं उसे बता पाती और जब वोह यह सारे ख़त पढ़ती तो शायद उसे यह एहसास होता की कोई अजनबी उसे कितना चाहता था...
काश..!
यही सोच रही थी.. की अचानक door bell बजी, लगता है मेरा सामान आ गया, मैंने आँखों की भीगी कोरो को पोछा और बढ़ गयी दरवाज़े की और....!!

June 24, 2008



शायद तुम आओ तो जान पाओगे


मेरे क़दमों के कई निशान पाओगे


मैं आज भी रोज़ वहां जाती हूँ


जहाँ तुम छोड़ के गए थे आखिरी बार


मेरी आंखों की नमी वहीँ पे पाओगे


शायद तुम आओ तो जान पाओगे.....




तुमको राह दिखने आज भी मेरे ख्वाब मिलेंगे


अपने रिश्ते के सफ्हे आज भी वहीँ मिलेंगे


मिलेगी मेरी मुन्तजिर आँखें भी वहीँ


जहाँ तुम छोड़ के गए थे आखिरी बार


सिसकती हुई उम्मीद को घायल पड़ा वहीँ पे पाओगे


शायद तुम आओ तो जान पाओगे....




मेरी चाहत का अंजाम क्या हुआ


जो मिला दुनिया से वोह इल्जाम क्या हुआ


सारे टूटे वादे बिखरे होगे वहां


जहाँ तुम छोड़ के गए थे आखिरी बार


गिले सारे, सभी शिकवे दफन वहीँ पे पाओगे


शायद तुम आओ तो जान पाओगे...!!





shayad tum aao to jaan paaoge


mere kadmon ke kai nisha'n paaoge


main aaj bhi roz wahan jaati hu'n


jahan tum chod ke gaye the aakhiri baar


meri aankhon ki nami wahan pe paaoge


shayad tum aao to jaan paaoge....




tumko raah dikhane aaj bhi mere khwaab milenge


apne rishtey ke safhe aaj bhi wahin milenge


milengi meri muntazir aankhein bhi wahan


jahan tum chod ke gaye the aakhiri baar


sisakti hui ummeed ko ghayal pada wahin pe paaoge


shayad tum aao to jaan paaoge...




meri chahat ka anjaam kya hua


jo mila duniya se woh ilzaam kya hua


saare tootey waade bikhre honge wahan


jahan tum chod ke gaye the aakhiri baar


gile saare, sabhi shikwe dafn wahin pe paaoge


shayad tum aao to jaan paaoge....!!!